इस दुनिया को गुलाब कर दूँ क्या ?








हर जगह दंगे हर जगह लफ़ड़े...
मैं भी बवाल कर दूँ क्या..??
लोग मारने- मिटाने पर लगे हैं
इनके विरुद्ध इंकलाब कर दूँ क्या..?
इंसान होकर जानवर सा व्यवहार
आज इंसानियत भी शर्मिंदा है
मानवता कहती है आज हमसे
कुछ सवाल मैं भी कर दूँ क्या..?
नक्कारों की फ़ौज सी जमी है
हमारी इस धरा पर जैसे कोई
अँधेरा घना हुआ जा रहा है
चाँद को आफ़ताब कर दूँ क्या..?
हिन्दू- मुसलमां अब यही नाम
बस सबकी जुबाँ पर ठहरा है
खून के प्यासे हुए जा रहे सभी
धर्म को कोई तालाब कर दूँ क्या..?
प्यार कोई बाँटता नहीं आज जहाँ में
सब नफरत का जहर पाले बैठे हैं
बन कर विवेकानंद, बुद्ध और महावीर
इस दुनिया को गुलाब कर दूँ क्या..??

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